सामाजिक न्याय और भारतीय संविधान

                                         सामाजिक न्याय की संकल्पना का बहुत व्यापक अर्थ है । इस प्रकार के न्याय केे तीन व्यापक आयाम हैं-सामाजिक,आर्थिक और रााजनीतिक । सामाजिक और आर्थिक क्षे़त्रों में लोकतंकत्र के सर्वेक्षण  से न्याय के अर्थ का इतना विस्तार हो गया है कि अब इसके अन्तर्गत मानव जीवन के सभी क्षेत्र आ जाते हैं, इसके अनुसार व्यक्ति के अधिकारों को उसकेे समाज के व्यापक हितों में सीमित किया जाना चाहिए ताकि सामाजिक न्याय केे उद्देष्य प्राप्त किये जा सकें । वास्तव में समाज का कल्याण व्यक्ति के अधिकारों और समुदायों के हितों के बीच समन्वय और समाधान पर निर्भर करता है । यदि दोनों में कोई विरोध हो तो समुदाय के हित को व्यक्ति के अधिकारों पर अधिमान्य समझा जाना चाहिए । सामाजिक न्याय का संबंध व्यक्ति के अधिकारों और सामाजिक नियंत्रण के बीच संकतुलन से है । यह अल्पसंख्याकों के हितों की रक्षा से लेकर गरीबी और निरक्षरता के उन्मूलन में अहम भूमिका अदा करता है । कानून के समक्ष समानता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और दरिद्रता, बीमारी, बेरोजगारी, और भूखमरी जैसी सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने में भी सहायक है ।

व्यापक अर्थ में ‘सामाजिक न्याय’ शब्दावली से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तीनों तरह के न्याय का बोध हो जाता है । सीमित अर्थ में यह सामाजिक आधारों पर भेदभाव का निशेध करता है जबकि आर्थिक न्याय का अर्थ है कि उत्पादन की प्रक्रिया में कोई व्यक्ति दूसरों के जीवन को नियन्त्रित करने और उनसे मनमानी शर्तो पर काम करने कि शक्ति न प्राप्त करले बल्कि सब लोगों को अपनी-अपनी योग्यता और परिश्रम के अनुसार उचित लाभ या पुरस्कार प्राप्त करने का अवसर मिले राजनीतिक न्याय का अर्थ है की सार्वजनिक नीतियाॅं निर्धारित करने की प्रक्रिया में सबको प्रत्यक्ष सर अप्रत्यक्ष रूप से हिस्सा लेने का अवसर और अधिकार प्राप्त हो । सार्वजनिक षक्ति का प्रयोग सबके हित को ध्यान में रखकर किया जाए । सभी लोगो को अपने विचारों को व्यक्त करने, उपयुक्त संगठन बनाने,सभाएॅं करने, दूसरों को समझाने बुझाने, लिखने इत्यादि की पूरी स्वतन्त्रता हो । वास्तव में इस अर्थ को स्वीकार करने पर राजनीतिक न्याय ‘स्वतन्त्रता का, आर्थिक न्याय समानता का और सामाजिक न्याय बन्धुता कर आदर्श साकार करता है । इन तीनों को मिलाकर ही सामाजिक जीवन में न्याय के व्यापक आदर्श  सिध्द किए जा सकते हैं ।

सामाजिक न्याय का अर्थ (Meaning of Social Justice) –

सामाजिक न्याय से भावार्थ यह है कि किसी देष में रह रहे व्यक्तियों से जन्म, जाति, रंग, नस्ल आदि के आधार पर कोई भेदभाव न किया जाए । जिस समाज में जन्म, जाति अथवा रंग आदि के आधार पर कुछ लोगों को विषेशाधिकार प्राप्कत होेते हैं, उस समाज में सामाजिक न्याय की प्राप्ति नहीं हो सकती । सामाजिकक न्याय उस समाज में भी सम्भव नहीं हो सकता, जहां लोगों में अत्यधिक आर्थिक अन्तर हैं अथवा जहां व्यक्ति के द्वारा व्यक्ति का षोशण होता हो । सामाजिक न्याय का मूल अर्थ है:-

(1) व्यक्तियों द्वारा उरत्पन्न की गई घोर असमानताओं को दूर करना।

(2) न्याय-पूर्ण सामाजिक व्यवस्था को विकसित करना जो सब के साथ समान व्यवहार करे।

(3) विषेशाधिकारों की समाप्ति तथा कमजोर वर्गों तथा पिछडी श्रेणियों के लोगों के लिए विषेश सुविधाएं अथवा रियायतों की व्यवस्था ।

(4) विकास के लिए सभी लोगों कों समान अवसर देने की व्यवस्था।

आधुनिक समाज में सामाजिक न्याय की अवधारणा औचित्यपूर्ण समाज की कल्पना करती है जिसमेंक सभी व्यक्तियों के साथ समान बर्ताव होता है । यह वर्गीय कर्तव्य की जगह नागरिक अधिकार पर बल देती है जो समाज में सभी व्यक्तियों को स्वतंत्रता व समानता की प्रतयाभूति प्रदान किये जाने पर बल देता है। फ्रांस की राज्य क्रान्ति ने आधुनिक समाज व्यवस्था के निर्माण की आधारशिला रखी । यह कुलीनवाद के विरूध्द मानव व्यक्तित्व की गरिमा की स्थापना के लिये जनता का संघर्श था । यह असमानता और सामंतवाद के विरूध्द स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व पर आधरित लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिये जन-संघर्श था। मानव स्वतंत्रता संबंधी घोशिणापत्र, जिसमें यह घोशणा की गई कि ‘‘सभी मनुश्य समान पैदा हुये हैं’ और ‘‘जीवन,स्वतंत्रता तथा प्रसन्नता की प्राप्ति मनुश्य के अभिन्न अधिकार हैं’’ पर हस्ताक्षर करने वालों ने दास प्रथा के उन्मूलन पर ध्यान नहीं दिया। ‘‘मैग्ना चार्टा’’ और ‘‘राइट आॅफ बिल’’ बनाने बालों ने भी दास प्रथा की बुराई की ओर ध्यान नहीं दिया। उनके लिये स्वतंत्रता से आषय संपति संबंधी अधिकार की प्रत्याभूति से अधिक नहीं था। उन्नीसवीं सदी में सामाजिक न्याय की समाजवादी सोच ने समाज से आर्थिक व सामाजिक विशमाता के उन्मूलन पर जोर दिया।

 सामाजिक न्याय के दो पक्ष हैं-विकासात्मक एवं वितरनात्मक । उदारवादी एवं पूॅंजीवादी विचारक विकास को महत्व देते हैं और इसके लिये वे स्वतंत्रता को आधारभूत एवं अपरिहार्य निरूपित करते हैं। सामाजवादी एवं साम्यवादी विचारक वितरण पर अधिक जोर देते हैं । उनके वितरण का आधार समानता है। नव उदारवादी एवं कल्याणकारी राज्य की धारणओं ने सामाजिक न्याय के विकासात्मक एवं वितरणात्मक पक्षों में उपयोगी सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया है । विकास की प्रक्रिया यदि ठप्प हो जाये तो विरतण अर्थहीन हो जाता है । व्यक्ति की योग्यता और आवष्यकता में प्रभावाारी सामंजस्य किस प्रकार स्थापित किया जाय इस संबंध में कोई ठोस योजना न तो नव उदारवादी विचारकों ने प्रस्तुत की है और न ही कल्याणकारी राज्य के प्रतिपादकों ने इसके लिये कोई मानदण्ड निर्धारित किये हैं । इस दृश्टि से असस्तू का कथन बहुत कुछ सही है कि ‘‘न्याय का अर्थ समानता है, किन्तु एक न्यायपूर्ण वितरण असमान होता है’

भारतीय परिदृष्य

प्रायःसभी प्राचीन एवं मध्यकालीन समाजों की रचना ऊंच-नीच और भेदभाव पर आधारित थी, किन्तु भारतीय समाज में भेदभाव का स्वरूप जन्मगत होन केे कारण अधिक कठोर था । शिक्षा और व्यवसाय चुनने की स्वतंत्रता समाज में बहुत सीमित लोगों को ही थी । समाज जातीय आधार पर असमान श्रेणियों में विभक्त था। जातिगत रचना के कारण समाज में असमानता, जन्मगत, श्रेणीबध्द और अपरिवर्तनीय थी । शास्त्रीय विधान के चलते कुछ जातियों को तो विषेशाधिकार प्राप्त थे, जबकि अधिकांष जातियाॅं निर्योग्यताओं से पीडित थीं । ऐसे में सामाजिक न्याय की स्थापना का कार्य सरल नहीं था।

विदेशी शासन के विरूध्द संघर्श मे सफलता मिलते ही देष में सामाजिक अन्याय और भेदभाव के उन्मूलन के लिये समेकित प्रयास आरंभ हुआ । यह कार्य एक साथ दो मोर्चों पर षुरू किया गया । एक ओर न्यायपूर्ण समाज की रचना के लिये आवष्यक संवैधानिक और वैधानिक पहल की गई और दूसरी ओर दरिद्रता, भूख और बेकारी से लडने के लिये योजनाबध्द रीति से सामाजिक, आर्थिक विकास संबंधी कार्यक्रम आरंभ किये गये ।

डाॅ. आम्बेडकर के अनुसार स्वतंत्रता, समानता और भातृत्व, सामाजिक न्याय का दूसरा नाम है। डाॅ. आम्बेडकर के अनुसार सामाजिक न्याय की कसौटियों पर यदि हम हिन्दू समाज, उसके विधान और उसकी वैचारिकी को परखें तो पायेंगे कि वे अन्यायपूर्ण हैं । हिन्दू समाज का बुनियादी सिद्धान्त समानता नहीं असमानता है । समानता से हमारा आषय भेदभाव की अनुपस्थिति है जो हिन्दू समाज में नहीं है । हिन्दू समाज में वर्ण एवं जाति की रचना अपरिवर्तनीय असमानता के सिद्धांत पर हुई है । वर्णाें एवं जातियों के अधिकारों, सुविधाओं एवं सामाजिक स्थितियों में अंतर है। सामाजिक न्याय के बुनियादी सिद्धान्तों-स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व, के आधार पर डाॅ.आम्बेडकर ने एक ऐसी न्यायपूर्ण व्यवस्था की परिकल्पना की जिसमें व्यक्ति और समाज के हितों में कार्यकारी संतुलन हो। यह व्यवस्था और कुछ नहीं वस्तुतः सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक प्रजातंत्र है ।

डाॅ. आम्बेडकर के अनुसार एक व्यक्ति एक मत के सिद्धान्त को स्वीकार करके हमने राजनैतिक क्षेत्र में व्यक्ति को समानता तो प्रदान कर दी, किन्तु सामाजिक और आर्थिक क्षेत्रों में असमानता अभी बनी हुई है। उन्होंने राजनैतिक और सामाजिक जीवन के बीच इस अन्तर्विरोध के प्रति लोगों को आगाह किया और कहा कि इसे षीघ्रातिषीघ्र समाप्त किया जाना चाहिए अन्यथा जो लोग असमानता के शिकार होंगे वे राजनैतिक लोकतंत्र के ढाॅंचे को, जिसे संविधान सभा ने काफी परिश्रम के बाद बनाया है, उखाड फेंकेंगे।

डाॅ. आम्बेडकर के संघर्शपूर्ण जीवन का मूल उद्देष्य किसी या किन्हीं व्यक्तियों या वर्गों को न्याय दिलाना ही नहीं था अपितु एक ऐसी समाज व्यवस्था की स्थापना करना भी था जिसमें सभी व्यक्तियों व वर्गों को न्याय मिले और सभी को विकास के समान अवसर प्राप्त हों । दूसरे षब्दों में, डाॅ. आम्बेडकर के चिन्तन का एक मूल उद्देष्य था, जो और कुछ नहीं बल्कि एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना करना था ।

 भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय की धारणा की व्यवस्था

भारतीय संविधान की प्रस्तावना से ही स्पश्ट है कि भारतीय संविधान सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए वचनबद्ध है । संविधान की प्रस्तावना में ही सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय की प्राप्ति को भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण उद्देष्य निष्चित किया गया है । स्वतन्त्रता, समानता तथा भ्रातृत्व केे अतिरिक्त प्रत्येक तरह का न्याय भारतीय राजनीतिक प्रणाली का मूल आधार है । सामाजिक न्याय की धारणा को भारतीय संविधान के मौलिक अधिकार वाले अध्याय तथा निर्देषक सिद्धान्तों वाले अध्याय में विषेश रूप में अंकित किया गया है ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय यूं तो समाज का अधिकांष भाग गरीबी, अशिक्षा और पिछडेपन का शिकार था किन्तु अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों की स्थिति अत्यधिक षोचनीय थी। अनुसूचित जातियाॅं जहाॅं सामाजिक दासता का दुःख भोग रही थीं वहीं जनजातियाॅं सभ्यता से दूर जंगली अवस्था में जी रही थीं । इन जातियों की संकटपूर्ण स्थिति नवोदित लोकतंकत्र के सामने बहुत बडी समस्या थी, जिसे देखते हुये भावी समाज की रूपरेखा निर्धारित करने वाली संविधान सभा ने सामाजिक न्याय की स्थापना को राश्ट्र का प्राथमिक लक्ष्य निरूपित किया ।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में यह स्पश्ट किया गया कि संविधान का मूल उद्देष्य अपने सभी नागरिकों के लिये सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय तथा विचार, अभिरव्यक्ति, विश्वास और उपासना की स्वतंत्रता और प्रतिश्ठा एवं अवसर की समानता तथा व्यक्ति की गरिमा एवं राश्ट्र की गरिमा एवं राश्ट्र की एकता सुनिष्चित करने वाली बन्धुता का विकास करना है। यहाॅं ध्यान देने योग्य बात यह है कि संविधान की उद्देशिका में न्याय को स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व से पहले रखा गया है । इसके अतिरिक्त, न्याय कि व्याख्या करते समय सामाजिक एवं आर्थिक न्याय को राजनैतिक न्याय की तुलना में प्राथमिकता दी गई है। ऐसा मुख्य रूप से इसलिये किया गया है क्योंकि रारजनैतिक न्याय(अर्थात् प्रत्येक नागरिक को मतदाता के रूप में पंजीकृत होने एवं मत देने का समान अधिकार) का कोई अर्थ नहीं है जब तक कि समाज में नागरिकों को सामाजिक आर्थिक न्याय प्राप्त नहीं होता

अनुच्छेद 19 मेें नागरिकों को स्वतंत्रता संबंधी विभिन्न अधिकार प्रदान किये गये, जिनमें बोलने, अभिव्यक्त करने, शांतिपूर्वक सम्मेलन करने,संगम व संघ बनाने, निर्बाध संचरण करने, देष के किसी भी भाग में बसने एवं निवास करने, कोई भी वृति एवं जीविका अपनाने और कारोबार करने की स्वतंत्रतायें सम्मिलित हैं। इससे निम्न जातियों के गमनागमन, बसने एवं निवास करने संबंधी निर्योग्यतायों तथा जातिगत व्यवसायिक प्रतिबन्धों का पूरी तौर पर उन्मूलन हो गया है। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 21 में यह प्रावधान किया गया कि राज्य किसी व्यक्ति को उसके जीवन (या प्राण) और दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित किसी प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से वंचित नही कर सकेगा आगे चलकर उच्चतम न्यायालय अपनी व्यवस्था को इसके आष्यमें विस्तार किया । तदनुसार जीवित रहने के अधिकार से तात्पर्य अब सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार हो गया है । अनुच्छेद 25, 26, 27 एवं 28 लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबन्धों के अधीन रहते हुये व्यक्तियों को अन्तःकरण्, विष्वास, धार्मिक आचरण तथा धार्मिक कार्याें के प्रकबंकध, प्रचार एवं प्रसार संबंधी स्वतंत्रतायें प्रदान करते हैं।

अनुच्छेद 14, 15, 16, 29 तथा 325 एवं 326 समानता संबंधी अधिकारों का प्रावधान करते हैं । अनुच्छेद 14 व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता प्रदान करता है। अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग कतथा जन्म स्थान केे आधार पर राज्य द्वारा किसी प्रकार के भेद का प्रतिशेध करता है। अनुच्छेद 16 राज्य को लोक नियोजनया नियुक्ति के संबंध में सभी नागरिकों को समान अवसर प्रदान किये जाने का प्रावधान करता है । अनुच्छेद 29 (2) राज्य द्वारा घोशित या राज्य निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेष पाने से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंष, जाति, भाशा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किये जाने की व्यवस्था करता है। अनुच्छेद 325 एवं 326 सभी नागरिकों को समान राजनैतिक अधिकार प्रदान किये जाने का प्रावधान करते है। अनुच्छेद 23 (1) के द्वारा बेगार या बलपूर्वक श्रम कराना निषिद्ध एवं इसका उल्लंघन दण्डनीय अपराध घोशित किया गया । अनुच्छेद 24 के माध्यम से 14 वर्श से कम आयु के बच्चो को कारखाना या खाण में नियोजित करने या संकटमय कार्य में लगाने से मना किया गया। संविधान के भाग 4 मे नीती निर्देषक सिध्दान्तांे का उल्लेख है, जिनके व्दारा राज्य को निदर्षशित किया है कि वह नागरिकांे का सामाजिक – आर्थिक न्याय प्रदान करणे के लिये आवष्यक वैधानिक एवं प्रषासकिय पहले करे। सामाजिक – आर्थिक संबंधी लक्ष्यों की बेहतर पूर्ति को दृश्टिगत रखते हुये संविधान में राज्य की कल्पना एक कल्याणकारी राज्य के रूप में की गई है जो समाज के सभी वर्गों के लोगों को सामाजिक न्याय सुनिष्चित करेगा, उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार एवं जीविकोपार्जन के लिये तथा उन्हें निर्वाह योग्य मजदूरी प्रदान कराने के लिये आवष्यक पहल करेगा । साथ ही कमजोर वर्गों विषेशरूप से श्रमिकों, बच्चों, वृöों एवं षारीरिक रूप से अवषक्त लोगों के लिये सामाजिक सुरक्षा व कल्याण कार्यक्रमों को लागू करेगा।

संविधान के अनुच्छेद 38 में ऐसी व्यवस्था करने के लिये राज्य को निर्दर्शित किया गया जिससे कि सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय की स्थापना हो और आय की असमानताओं को कम किया जा सके । अनिुच्छेद 39 में राज्य से जहाॅं यह अपेक्षा की गेई कि वह नागरिकों को जीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध कराने वहीं इस बात पर भी जोर दिया गया कि राज्य उत्पादन के साधनों का सर्वसाधारण के लिये अहितकारी सकेन्द्रण को रोकने तथा सामूहिक हित के सर्वोतम उपयोग की दृश्टि से भौतिक संसाधनों के स्वामित्व व नियंत्रण को नियमित करने का प्रयास भी करेगा।

अनुच्छेद 41, 42, 43, एवं 45 राज्य के कल्याणकारी कार्याें से संबंधित हैं। अनुच्छेद 41 के अन्तर्गत राज्य को निर्दर्शित किया गया है कि वह अपनी आर्थिक क्षमता व सीमा के अनुरूप लोगों को बेरोजगारी, बीमारी,   असमर्थता व अन्य प्रकार की आवषक्तता की अवस्था में काम-काज तथा शिक्षा एवं सार्वजनिक सहायता का अधिकार मुहैय्या कराने का प्रावधान करे। अनुच्छेद 42 कार्य की उपयुक्त मानवोचित दषा तथा मातृत्व लाभ सुनिष्चित करने से सम्बन्धित है। अनच्छेद 43 में निर्दर्शित किया गया है कि राज्य उपयुक्त विधान, आर्थिक संगठन या अन्य किन्हीं माध्यमों से सभी श्रमिकों चाहे व कृशि श्रमिक, औद्योगिक या अन्य किसी प्रकार के श्रमिक हों, के लिये कार्य, निर्वाह योग्य मजदूरी तथा कार्य के लिये समुचित दषायें उपलब्ध कराने का प्रयास करेगा जिससे कि उनके लिये उत्तम जीवन स्तर, अवकाष के पूर्ण उपयोग तथा सामाजिक व सांस्कृतिक अवसरसुनिष्चित हो सकें। अनुच्छेद 45 बालकों के लिये निःषुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रबंध किये जाने से संबंधित है। समाज के कमजोर वर्ग, विषेशरूप से महिलायें एवं अनुसूचित जातियों के लोग, सदियों से षास्त्रीय निर्योग्यताओं से पीडित थे। संविधान के माध्यम से इनकी निर्योग्यताओं का उन्मूलन कर दिया गया तथा इन निर्योग्यताओं को लागू करना अपराध घोशित किया गया। संविधान में राज्य को इन अपराधों के लिये दण्ड विहित करने हेतु आवष्यक कानून बनाने के लिये कहा गया। संविधान के अनुच्छेत 35 (अ) (11) के तहत द्वारा अस्पृष्यता अपराध अििधनियम 1955 पारित किया गया। आगे चल कर इस अधिनियम को अधिक प्रभावकारी बनाने की दृश्टि से 19 नवम्बर, 1976 से नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955 लागू किया गया । इसी कडी में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध भेदभाव व अत्याचार निवारण कानून 1989 के रूप में एक और कानून पारित किया गया । इस कानून के अन्तर्गत अस्पृष्यता संबंधी अपराधों के विरूद्ध दंड में वृद्धी कि गई तथा इन जातीयो के विरूध अत्याचार के प्रकरणों में अधिक कठोर दण्ड का प्रावधान किया गया ।

महिलाओं की स्थिति में सुधार और उन्हें पुरूशों की तुलना में समानता प्रदान करने की दृश्टि से कई विधान पारित किये गये जिनमें हिन्दू उतराधिकार अधिनियम 1956, हिन्दू नाबालिगी तथा संरक्षकता अधिनियम 1956, सप्रेषन आॅफ इम्मारत्न ट्राफिक इन वुमेन एण्ड गल्र्स एक्ट 1956 तथा दहेज निरोधक अधिनियम 1961 मुख्य हैं ।

कारखानों एवं खदानों में कार्यरत श्रमिकों को षोशण से बचाने, उनकी छटनी रोकने, कार्य की दषाओं में सुधार लाने, काम के घंकटे निर्धारित करने तथा वेतन, बोनस, फण्ड, बीमा दुर्घटना के विरूö क्षतिपूर्ति प्रदान करने तथा मातृत्व लाभ प्रदान किये जाने आदि से संबंधित विशयों पर श्रम सन्नियमों का निर्माण किया गया है। श्रमिकों के हितों की रक्षा की दृश्टि से न्यूनतम वेतन कानून 1948,बाण्डेड लेबर एक्ट 1976 तथा बाल श्रम उन्मूलन अधिनियम 1986 भी उन्नेखनीय है।

संक्षेप में हम यह कह सकते है कि यदि उपरोक्त वर्णित व्यसस्थाओं को क्रियान्वित रूप देने के लिए आवष्यक कार्यवाही की जाए तो सामाजिक न्याय की उपलब्धि पर्याय सीमा तक सम्भव हो सकती है ।

सामाजिक न्याय की उपलब्धि के लिए निम्नलिखित व्यवस्थाएं होनी अनिवार्य है:-

  1. कानून के समक्ष समानता   (Equality before Law)  –
  2. विषेशाधिकारों की समाप्ति  (Abolition of Special Rights) _
  3. अधिकारों की सभी के लिए समान व्यवस्था  (Equal Provision of Rights for all ) –
  4. जाति-प्रथा का अन्त  (End of Caste System) –
  5.  पिछडे वर्ग के लोगों को विषेश  (Special amenities to the Backward Sections of  Society) –
  6. लोकतान्त्रिक प्रणाली   (Democratic System) –
  7. सुरक्षित भेदभाव  (Protective Discrimination) –
  8.  धन का उचित वितरण  (Just distribution of Wealth)  –
  9.  आर्थिक सुरक्षा  (Economic Security)  –
  10.  श्रमिकों के हितों की रक्षा  (Protection of interest of Workers)  –

समानता तथा सामाजिक न्याय किसी भी पक्ष से परस्पर विरोधी नहीं है। कमजोर वर्गों के लोगों को विषेश सुविधाएं देने से सामाजिक न्याय के सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं होता, अपितु सामाजिक न्याय की उपल्ब्धि की सम्भावना में वृद्धि होती है। इस प्रकार यदि समाज में रहते लोगों के परस्पर आर्थिक अन्तरों को कम करने के लिए अमीर वर्ग के लोगों पर कोई कानून प्रतिबन्ध अंकित किए जाते हैं तो हैं तो सरकार की ऐसी कार्यवाही समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन नहीं करती तथा न ही ऐसी कार्यवाहियों के द्वारा स्थापित की गई समानता सामाजिक न्याय के सिद्धान्त के विरूद्ध मानी जा सकती है। समानता तथा सामाजिक न्याय किसी पक्ष से परस्पर विरोधी नहीं अपितु परस्पर सहयोगी है। समानता के बिना सामाजिक न्याय सम्भव नहीं हो सकता।

यह ठीक है कि आजादी के बाद न्यायपूर्ण समाज की रचना की दिशा में हमने ठोस पहल की है। जिससे देष में साक्षरता का अनुपात बढा है, निर्धनता की रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों के अनुपात में कमी आई है, लोगों की औसत जीवन आयु बढी है अस्पृष्यता का उन्मूलन कर दिया गया है, बंधुआ मजदूरी समाप्त कर दी गई है, बाल श्रम को निशिद्ध कर दिया गया है, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों को विकास कार्यक्रमों तथा आरक्षण व अन्य प्रावधानों से काफी लाभ पहुंचा है, महिलाओं में शिक्षा का प्रसार हुआ है और सार्वजनिक सेवाओं में उनकी भागीदारी भी बढी है, सता पर उच्च जातियों का वर्चस्व घटा है तथा मध्यम और निम्न जातियों की भागिदारी बढी है किन्तु इन सबके बावजूद सच्चाई यह है कि हम न्यायपूर्ण समाज की रचना में अभी भी शुरूआती दौर में ही हैं। इससे आगे नहीं बढ पाये है। यदि यह मान भी लिया जाय कि साक्षरता, निर्धनता उन्मूलन, सता एवं सार्वजनिक सेवाओं में कमजोर वर्गों का अपेक्षित प्रतिनिधित्व तथा अस्पृष्यता की समाप्ति आदि मानकों पर हमें षत प्रतिषत सफलता मिल जाती है तो भी केवल एक उपादान जाति व्यवस्था के उन्मूलन, पर हमारी विफलता सामाजिक न्याय संबंधी हमारी सारी उपलब्धियों पर पानी फेर देगी । इस सवाल पर कोई दो राय नहीं है कि भारतीय समाज में जाति व्यवस्था अभी मुकम्मल रूप से कायम है कि कुछ बातों में यह कमजोर जरूर हुई है लेकिन कई बातों में यह पहले से अधिक मजबूत भी हुई है।

संविधान में न्याय को महत्व देना एक बात है और सामाजिक जीवन में न्यायपूर्ण व्यवहार करना दूसी बात है । यदि हम सामाजिक न्याय की वास्तव में स्थापना करना चाहते हैं तो हमारे लिये विचार और आचार के बीच विसंगति को दूरकरना बहुत जरूरी है । संविधान निर्माताओं ने न्याय पर आधारित समाज व्यवस्था की जो संवैधानिक रूपरेखा रखी उस फे्रमवर्क में ही नियोजित विकास कार्यों का आयोजन करना चाहीए।

संविधान का प्रमुख ध्येय है-सामाजिक न्याय की स्थापना, जिसे संसदीय लोकतंत्र के माध्यम से समाज में उतारनेका प्रयास किया गया है किन्तु परंपरात्मक संरचना की जातीय पृश्ठभूमि के कारण भारत में लोकतंत्र की अपनी विशीष्ट सीमाएं हैं। साम्प्रदायिकता, धार्मिक संघर्श और भाशायी विवाद लोकतंत्र के सामने अन्य चुनौतियां हैं। लोक नेतृत्व के विकास तथा इसके साथ कंधे से कंधा मिला कर चलने में नौकरशाही की औपनिवेषिक संरचना बहुत बाधक है। फिर भी हमे आशावादी होना चाहीए और यह आशा करनी चाहीए कि, भविश्य में जाति कमजोर होगी और लोकतंत्र मजबूत होगा जिससे न्यायपूर्ण समाज की रचना का मार्ग आसान होगा। और डाॅ. आम्बेडकर के सपनो का भाारत साकार होगा।

प्रा. मंगेश जुनघरे

9860800403

M.A( Buddhist Studies, Dr. Ambedkar Thought)

M.phil .( Political Science) Sociology

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*